खोया है जबसे तुझे
कोई शह अब मुझको भाती नहीं
तकता हूँ शीशा मगर
कोई सूरत मुझको नज़र आती नहीं
आह निकले मेरी तो क्या
कोई भी तेरे दिल तक जाती नहीं
थी मेरी हमराज़ कभी
अब तो ग़म भी अपने बतलाती नहीं
है बाकी उम्मीद अमित
वरना अपना रंज यूँ जतलाती नहीं
Unclogging my mind…
खोया है जबसे तुझे
कोई शह अब मुझको भाती नहीं
तकता हूँ शीशा मगर
कोई सूरत मुझको नज़र आती नहीं
आह निकले मेरी तो क्या
कोई भी तेरे दिल तक जाती नहीं
थी मेरी हमराज़ कभी
अब तो ग़म भी अपने बतलाती नहीं
है बाकी उम्मीद अमित
वरना अपना रंज यूँ जतलाती नहीं
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