याद है वो मंज़र मुझे
उतरती थी सीढ़ियों से तुम
ज्यों उतरता है फ़लक से चाँद ज़मीन पर
आईं थी मुझसे मिलने
शायद दस मिनट देर से आईं थीं
गुज़रती हैं शायद यूँ ही सदियाँ
फिर नज़र आया मुझे
तुम्हारा चेहरा मुझे ढूँढ़ते हुए
ढूँढा करती है क्या शमा परवाने को
करीब आईं थीं तुम
शायद कुछ कहा भी था तुमने
जो मैंने सुना वो तुमने कहा ही नहीं
एक मुलाकात थी वो
पर यह भी सच है यारों
क़यामत रोज़ रोज़ नहीं हुआ करती
In response to: Reena’s Exploration Challenge # 141
Nice one. ‘क़यामत रोज़ रोज़ नहीं हुआ करती’ sundar rachna.
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धन्यवाद …
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Nice! I like “jo maine sune, tumne kaha hi nahin” 😂
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Thanks…
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