ज़ुल्फ़ में बदली, होठों पर शबनम
तेरी सूरत में मुझे सब नज़र आता है
दिखाई देती है हँसी सब को मेरी
यह दर्द भला कब नज़र आता है
एक तो मिलता ही नहीं वो अब हमसे
फेर लेता है आँख जब नज़र आता है
वो जिसे माना था हमने मसीहा अपना
अजनबी सा उसका ढब नज़र आता है
कौन समझ पाया उन आँखों की हकीक़त
कभी कातिल कभी रब नज़र आता है
अजीब फ़ितरत है मेरे यार की “अमित”
बिछड़ा है पर रोज़-ओ-शब् नज़र आता है
In response to: Reena’s Exploration Challenge # 141
The second and second last stanzas are both beautiful.
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Thanks Reena
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उत्कृष्ट लेखन beautifully written
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Thanks a lot !!!
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