फिर तेरी जुल्फ के जाल से निकला ही नहीं
इश्क़ के ख़ूबसूरत जंजाल से निकला ही नहीं
किस तरह आती गई रात एक पल भी नींद
डूबा तो फिर तेरे ख़्याल से निकला ही नहीं
उठ गयी जो मेरी नज़र एक बार तेरी जानिब
दिल उस एक कमाल से निकला ही नहीं
क्या है उन्हें अब भी पहले की सी मुहब्बत
क्यों मैं कभी इस सवाल से निकला ही नहीं
जीता रहा तू ताउम्र होकर नाउम्मीद अमित
क्यों ज़िन्दगी के बवाल से निकला ही नहीं