तुम तुम न रहो, हम हम न रहें
हम दोनों के दरम्यां कोई फासला न रहे
छीन लो मुझसे तमाम प्यास मेरी
हो सामने जाम, उठाने का हौसला न रहे
यूँ मिटा दो अपने सभी शिकवे गिले
फिर रूठने मनाने का सिलसिला न रहे
मिले सज़ा न मिले वज़ह-ए-सज़ा
किसी भी गुनाह का ऐसा सिला न रहे
हो क़ातिल तुम्हीं बन बैठे हो मुंसिफ़
“अमित” के हाथ कोई फैसला न रहे